शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

रुक्‍नों के बनने की कहानी बड़ी ही दिलचस्‍प मालूम होती है । मात्राओं से मिलकर कर जुज़ बनना और जुज़ों से मिलकर रुक्‍न बनना ।

पिछले अंक में हमने ये देखा था कि जो पांच मात्रिक रुक्‍न हैं वे कैसे बनाये जाते हैं । पिछली बार हमने ये भी देखा था कि कुल जो सात मुफ़रद बहरें हैं जो अलग अलग स्‍थाई रुक्‍नों से बनी हैं उनमें से दो मुत‍दारिक तथा मुतकारिब  ये दोनों ही बहरें पांच मात्रिक रुक्‍न के स्‍थाई विन्‍यास से बनीं हैं । और इन दोनों के स्‍थाई पांच मात्रिक रुक्‍न हैं फाएलुन और फऊलुन  । हमने इन दोनों ही रुक्‍नों को बनाने का तरीका पिछले अंक में देखा था । आज बात करते हैं बाकी के 6 रुक्‍नों की । जैसा कि पिछले अंक में  हमने देखा था कि सारी की सारी बहरें कुल आठ प्रकार के रुक्‍नों की ही उत्‍पत्तियां हैं । ये आठ प्रकार के मात्रिक विन्‍यास हैं जो आठ रुक्‍न कहलाते हैं । ये ही वे आठ हैं जो सारी ग़ज़लों के जन्‍मदाता हैं ।

आज कुछ पिछली बातें करने के लिये ये पोस्‍ट लिखी है । पिछली बातें इसलिये करनी ज़ुरूरी हैं कि अब जो काम हम करने वाले हैं उसमें पिछले अध्‍यायों की आवश्‍यकता बहुत पड़नी है । कई सारे लोग ऐसे हैं जो कि नये आये हैं । वे सुबीर संवाद सेवा के साथ प्रारंभ से नहीं जुड़े हैं । इसलिये मुझे लगता है कि उनकी सुविधा के लिये एक बार पिछले एक पाठ का जो कि सुबीर संवाद सेवा से लिया जा रहा है लेकिन उसमें काफी परिवर्तन किये जा रहे  हैं ।

बहरें

यदि हम बहरों की परिभाषा निकालना चाहें तो वो कुछ यूं होगी कि निश्चित रुक्‍नों के निश्चित क्रम को एक विशिष्‍ट बहर कहा जाता है । जैसे रुक्‍नों की परिभाषा ये है कि निश्चित जुज़ों के निश्चित क्रम को रुक्‍न कहा जाता है । जैसे जुज़ की परिभाषा ये है कि निश्चित मात्राओं के निश्चित क्रम को जुज़ कहते हैं ।

बहरों के बारे में हम पहले ये जान चुके हैं कि बहरें मूल रूप से दो प्रकार की होती हैं । मुफ़रद और मुरक्‍कब

पहले बात करते हैं मुफ़रद बहरों की ।

मुफ़रद बहरें  ये बहरें एक ही प्रकार के रुक्‍नों के संयोग से बनती हैं । अर्थात इनके बनाये जाने में केवल एक ही प्रकार का रुक्‍न उपयोग किया जाता है । ये कुल सात प्रकार की होती हैं तथा हरेक का अपना अपना स्‍थाई रुक्‍न होता है ।

1 बहरे मुतदारिक : स्‍थाई रुक्‍न फाएलुन ( 212 ),  2 बहरे मुतकारिब - स्‍थाई रुक्‍न फ़ऊलुन ( 122 )

3 बहरे हजज : स्‍थाई रुक्‍न मुफाईलुन ( 1222) ,   4 बहरे वाफ़र : स्‍थाई रुक्‍न मुफाएलतुन ( 12112)

5 बहरे रजज : स्‍थाई रुक्‍न मुस्‍तफएलुन  ( 2212),  6 बहरे कामिल : स्‍थाई रुक्‍न मुतफाएलुन ( 11212 )

7 बहरे रमल : स्‍थाई रुक्‍न फाएलातुन ( 2122 )

ये कुल मिलाकर सात मुफरद बहरें हैं जो कि सात प्रकार के रुक्‍नों से बनी हैं । इनमें से भी यदि आप  हजज और वाफ़र  तथा  रजज और कामिल  को गौर से देखें तो आप पाएंगें कि इन दोनों का ही मात्रिक विन्‍यास लगभग एक जैसा नज़र आ रहा है । हजज के 1222 में जो तीसरे नंबर की दीर्घ है वो वाफर में आकर 11 हो गई है । इसी प्रकार से रजज की 2212 में पहली दीर्घ कामिल में 11 हो गई है । अब आप कहेंगें कि उससे क्‍या फर्क पड़ा बात तो एक ही रही । जी नहीं बात अलग हो गई है । जब हम 11 लिखते हैं तो उसका मतलब होता है कि हम दो स्‍वतंत्र लघु मात्राओं की बात कर रहे हैं । न अगर कहीं इसका वज्‍न 11212 है ये कामिल का रुक्‍न है । तुम हो कहीं  इसका वज्‍न 2212 है ये रजज का रुक्‍न है । क्‍या फर्क है ? फर्क ये है कि न अगर कहीं  में जो   है वो अगर  के   के साथ संयुक्‍त नहीं हो रहा है । दोनों अपने स्‍थान पर स्‍वतंत्र हैं । जबकि तुम हो कहीं  में दोनों मात्राएं संयुक्‍त होकर दीर्घ हो गई हैं । न शाम अगर  का वज्‍न होगा 12112 अर्थात ये बहरे वाफर का रुकन है ( जो उर्दू हिंदी में नहीं के बराबर उपयोग होती है । ) जबकि न शामों को   का वज्‍न 1222 होगा जो हमारी सबसे पापुलर बहर हजज का रुक्‍न है । इस छोटे से अंतर के चलते दो अलग प्रकार के रुक्‍न बन जाते हैं और दो अलग प्रकार की बहरें जन्‍म लेती हैं ।

तो इस प्रकार से सात मात्रिक विन्‍यास के 6 रुक्‍न हुए 1222, 12112, 2212, 11212, 2122 और अंत में 2221, ये जो अंत में हमने लिया है 2221 ( मफऊलातु ) इस पर कोई भी मुफरद बहर नहीं है लेकिन ये भी स्‍थाई रुक्‍न है । दो 5 मात्रिक रुक्‍न 212,  122 को मिलाकर ये होते हैं कुल आठ स्‍थाई रुक्‍न जिनकी गर्भ से ही सारी की सारी बहरों का जन्‍म होता है ।

अब कुछ लोग पूछ सकते हैं कि सर झुकाओगे तो पत्‍थर देवता हो जायेगा ( बहरे रमल मुसमन महजूफ ) को भी हम मुफ़रद बहर  क्‍यों कह रहे हैं जबकि इसमें तो एक रुक्‍न बदल गया है । और मुफरद बहर की तो परिभाषा है कि उसमें एक ही प्रकार के रुक्‍न आते हैं । जबकि इसमें तो हो रहा है फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन  अब ये जो अखिरी में फाएलुन हो गया है ये तो अलग रुक्‍न आ गया है । दरअसल में ये एक प्रकार की मात्रिक घट बढ़ है जिसमें किया ये गया है कि फाएलातुन की आखिरी की एक दीर्घ मात्रा ( सबब-ए-खफीफ ) हटा दी गई है इसलिये ये 2122 से 212 हो गया है और इस प्रकार अंत की मात्रा को कम करने के तरीके को हज़फ़  करना कहते हैं और इस प्रकार की घट बढ़ से बने रुक्‍न को महजफ ( या महजूफ )  कहते हैं । इसीलिये इसके नाम में बहरे रमल मुसमन के साथ महजूफ  भी लगेगा ये बताने के लिये कि इसमें मूल रुक्‍न से एक सबब-ए-ख़फीफ़ अंत से कम किया गया है ।

जिहाफत : जब किसी स्‍थाई रुक्‍न के मात्रिक विन्‍यास के जुज में किसी प्रकार की घट बढ की जाती है ताकि नया रुक्‍न पैदा हो सके तो उसको जि़हाफ़त कहते हैं । चूंकि ये जो कम बढ़ की जा रही है इसके कारण एक नया रुकन बन गया है । लेकिन ध्‍वनि विन्‍यास में वह अपने मूल रुक्‍न से मिलता जुलता ही है । तो जहां जहां ये जिहाफत की जायेगी वहां वहां जो रुक्‍न पैदा होगा उसे मुज़ाहिफ़ रुक्‍न  कहा जायेगा और उस प्रकार की बहर को फिर मुजा़हिफ बहर कहा जायेगा । जि़हाफ़त  से पैदा हुआ मुजा़हिफ़ ।  अब इस जि़हाफत के कई सारे तरीके हैं । जो तरीका लगाया जायेगा उस नाम का रुक्‍न पैदा होगा । जैसे हमने ऊपर देखा कि जि़हाफत  के लिये हज़फ़ तरीका इस्‍तेमाल किया गया तो जो मुजाहिफ रुक्‍न  बना उसका नाम भी महजूफ  हो गया । इस प्रकार से ये भी ज्ञात हुआ कि जिहाफत के जो कई प्रकार हैं उनमें से एक प्रकार का नाम है हज़फ़ ।

तो अब यहां तक आकर हमारे पास मुफ़रद बहरों में भी दो प्रकार की बहरें हो गईं सालिम और मुज़ाहिफ । इसमें सालिम का मतलब ये कि बहर का मूल रुक्‍न एक बार, दो बार, तीन बार जितनी बार भी आ रहा हो अपने मूल रूप में ही हो, किसी प्रकार की कोई मात्रिक छेड़ छाड़ उसके साथ नहीं की गई हो । जैसे फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन अब इसमें रमल का मूल रुक्‍न चारों बार अपने मूल रूप में दोहराया गया है सो ये सालिम बहर है । लेकिन जैसे ही जिहाफत करके फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन   हुआ वैसे ही ये मुजाहिफ बहर हो गई ।

तो ये तो हुइ मुफरद, सालिम और मुजाहिफ की परिभाषा । अब ये मुरक्‍क्‍ब क्‍या बला है बात करते हैं अगले अंक में । ईश्‍वर ने चाहा तो तो अगला अंक जल्‍दी ही होगा । इस माह में दो तो हो ही गये हैं । मुरक्‍कब की बात करके ही फिर हम बाकी के रुक्‍नों को बनाना सीखेंगें  ।

मुझे लगता है कि अब ग़ज़ल का सफ़र पढ़ने में किसी को कोई दिलचस्‍पी नहीं है नहीं तो ऐसा कैसे होता कि कमेंट 48 से सीधे 8 पर आ गये । या हो सकता है लोगों के पास पढ़ने का समय तो है पर कमेंट का नहीं है । व्‍यस्‍तता का युग है ।

तो अंत में एक बार सारे आठ स्‍थाई रुक्‍नों की लिस्‍ट :-

1 फाएलुन 212

2 फऊलुन 122

3 मुस्‍तफएलुन 2212

4 मुतफाएलुन 11212

5 फाएलातुन 2122

6 मुफाईलुन 1222

7 मुफाएलतुन 12112

8 मफऊलातु 2221

23 टिप्‍पणियां:

अर्चना तिवारी ने कहा…

आजका पाठ पढ़ा..ये जानकार और प्रसन्नता हुई कि आप ने पिछली कक्षाओं के पाठों को दोहराया है..हम जैसे नए लोगों को ये पाठ बहुत फलित होगा..बहरों के बारे में जो जानकारी दी गई है उससे पहले की जो भी अस्पष्टता थी,अधूरा ज्ञान था वह सब स्पष्ट हो रहा है ...अब नए सिरे से पूर्ण जानकारी प्राप्त हो रही है...एक बात और ब्लॉग पर टिप्पणी कम हो रही है इस कारण पोस्ट बंद मत करियेगा क्योंकि जब कोई पुस्तक लिखी जाती है तब उसकी जानकारी कम लोगों को होती है परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उसकी प्रसिद्धी एवं मांग बढ़ती जाती है...आशा है ये ब्लॉग भी ग़ज़ल की शिक्षा की पुस्तक (ई-पुस्तक) बनेगा..यह हमारी धरोहर भी होगी

तिलक राज कपूर ने कहा…

विषय से थोड़ा हटकर बात है लेकिन यहॉं शायद इसकी चर्चा जरूरी है कि जुज़, रुकन अथवा बह्र में अगर कोई छूट ली भी जाती है तो उसमें ऐसा मत्‍ले के शेर में नहीं होना चाहिये। मेरा मानना है कि मत्‍ले का शेर जुज़ स्‍तर पर इतना साफ़ होना चाहिये कि उसमें बह्र स्‍पष्‍ट दिख रही हो। मत्‍ले के शेर में शब्‍द चयन इस स्‍तर का होना चाहिये कि सबब, वतद और फ़ासला शब्‍दश: स्‍पष्‍टत हो। ऐसा पालन सामान्‍यतया: कठिन हो सकता है, ऐसी स्थिति में शब्‍दों को मिलाकर देखने पर तो बह्र स्‍पष्‍ट दिखनी ही चाहिये। इसमें भी कठिनाई हो तो काफि़या और रदीफ़ में तो कोई समझौता नहीं होना चाहिये। यह सब भी कठिन हो तो शाइर ने बह्र का उल्‍लेख अवश्‍य करना चाहिये और कोशिश करना चाहिये कि कम से कम एक शेर तो बह्र पर कायम हो।
सबब ए सक़ील और वतद मफ़रूफ़ को छोड़ दें तो साकिन अंत में ही आयेगा। सबब ए सक़ील में साकिन होगा ही नहीं और वतद मफ़रूफ़ में यह मध्‍य में होता है अत: शब्‍द चयन में यह ध्‍यान रखना आवश्‍यक होगा कि शब्‍दों के साकिन गिराया को ही जा सकता है मुतहर्रिक को नहीं। यह बात चर्चा से और स्‍पष्‍ट हो सके तो अच्‍छा रहेगा।

प्रकाश पाखी ने कहा…

गुरुदेव प्रणाम,
नेट से दूर होने के बावजूद केवल सुबीर सम्वाद सेवा और गजल के सफर का पठन नियमित रूप से कर रहा हूँ...कमेन्ट करने में दिक्कत हो रही है...पर जितना संभव है आपको मिस नहीं कर सकता...पिछली पोस्ट दो बार पढ़ चुका हूँ ..भेजे में घुसा रहा हूँ...उर्दू शब्दों से कन्फ्यूज हो जाता हूँ...गणित का विद्यार्थी हूँ अत: अंक से ज्यादा समझ में आता है....आज सरकारी कार्य से मुख्यालय आया हूँ तो नेट का फायदा ले रहा हूँ...जुज और रुक्न से तस्वीर कुछ कुछ साफ़ हो रही है....पर अभी भी दिल्ली दूर है...अब तक की गजल की सफ़र की सभी पोस्ट बार बार पढने योग्य बन चुकी है...और मुझ जैसे अनपढ़ को भी समझने में आसानी हो रही है और पढ़ कर आनंद भी आरहा है...शायद इससे बेहतर ढंग से गजल को कोई कभी समझा नहीं पाएगा.तरही मुशायरा में भी कमाल की गजले आ रही है पढ़ कर आनंदित हो रहा हूँ..भाग लेना और कमेन्ट करना मुश्किल है. पर गजल के सफर में जरूर अपनी उपस्थिति दर्ज कराऊंगा...गुरु पूर्णिमा का बी लेटेड प्रणाम स्वीकार करें...
आपका
प्रकाश पाखी

पंकज सुबीर ने कहा…

तिलक जी आपने सही लिखा है लेकिन ये तो अभी बहुत ही आगे की बात है । अभी तो हम बहुत ही प्रारंभिक अवस्‍था में हैं । जब हम रुक्‍नों से बहर बनाने की बात पर आएंगे तब इस पर बात अवश्‍य करेंगें । अभी चूंकि यहां पर काफी लोग बहुत ही प्रारंभिक अवस्‍था में हैं अत: उनको स्‍टेप बाय स्‍टेप बताना ही ठीक रहेगा । अभी चूंकि वे जुज रुक्‍न जैसे शब्‍दों से ही तालमेल बिठाने के प्रयास में हैं । जब वे जान जाएंगें कि जुज क्‍या होते हैं तब हम उनको वो सारी बातें बता सकते हैं जो आपने लिखी हैं । वे बातें शायद हम पांच या छ: पोस्‍ट के बाद ही करेंगें । तब जब हम जिहाफत को विस्‍तार देंगें ।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

जी आचार्य जी, इस प्रकार से सविस्तार पाठ में कोई परेशानी नहीं हो रही है. चीज़ें स्पष्ट होती जा रही है.
इस सफ़र में मेरी प्राथमिकताएं तो तय है. होमवर्क के पश्चात सवाल जवाब भी जरुर होंगे.

प्रकाश पाखी ने कहा…

तिलक राज साहब का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ.उनकी टिप्पणी सारगर्भित और उपयोगी है.उनकी टिप्पणी को समझने के लिए गजल के सफ़र की सारी पोस्ट वापस पढ़ी.मुझे लगता है कि जब भी गजल के सफर पर कोई नई पोस्ट लगे तो मुझ जैसे नए सीखने वालो को पहले पाठ से आखिर तक सारी पोस्ट वापस पढ़ लेनी चाहिए....ऐसा मैं केमिस्ट्री के सबक याद करने में करता था...पर एक बार यह करने पर समझ के स्तर पर पाठ आसान हो जाते है.मुफरद,सालिम और मुजाहिफ को जानना रोचक रहा.अब मुरक्कब का इन्तजार है.

तिलक राज कपूर ने कहा…

मुझे लगता है कि पंकज भाई ठीक कह रहे हैं। मुझे भी टिप्‍पणी देते समय लग रहा था कि कुछ आगे की बात न हो जाये।
प्रकाश पाखी जी ने अगर पहली पोस्‍ट पर मेरी टिप्‍पणी पढ़ी हो तो उसमें कबूतर का उदाहरण इस दृष्टि से भी संगत है कि आगे का पाठ पढ़ते हुए पिछले पाठ याद रखना और उनसे नये पाठ को जोड़कर देखना जरूरी है।
एक पंजाबी मुहावरा है 'अग्‍गे दौड़ पिच्‍छे चौड़' जो इंगित करता है कि आगे दौड़ते समय पिछला सब चौपट नहीं होना चाहिये।

वीनस केसरी ने कहा…

गुरु जी प्रणाम,

कल पिछली पोस्ट पर कुछ प्रश्न लिखे थे, सोचा था सीनियर्स से जवाब मिल जाएगा

आज जब जवाब पाने की उत्सुकता में ब्लॉग खोला तो एक नई पोस्ट पढ़ने को मिल गई

अब इस पोस्ट पर कोई सवाल नहीं करूँगा क्योकि समझ आ रहा है कि मेरे सभी सवालों के जवाब सुबीर संवाद सेवा की पुराणी पोस्टों में छुपे हुए हैं

अब तो सुबीर संवाद सेवा की अगस्त २००७ से अब तक की सारी पोस्ट को फिर से पढ़ने के बाद ही इस पोस्ट पर कोई कमेन्ट करूँगा |

आपका वीनस

Rajeev Bharol ने कहा…

गुरूजी,
प्रणाम.

नए पोस्ट के लिए धन्यवाद. इसका हमेशा इंतज़ार रहता है. हालाँकि पता है की जब नई पोस्ट लगेगी तो आपकी मेल आ ही जायेगी लेकिन फिर भी बार बार आकर देखता हूँ.

आपने लिखा है : "फाएलातुन की आखिरी की एक दीर्घ मात्रा सबब-ए-खफीफ हटा दी गयी है इसलिए २२१२ से २१२ हो गया है और इस प्रकार अंत की मात्रा को कम करने के तरीके तो हजफ करना कहते हैं.."

इसमें Typo है. यहाँ २२१२ की जगह २१२२ होगा...

निर्मला कपिला ने कहा…

तिलक भाई साहिब सही फरमा रहे हैं मेरे साथ तो ऐसे ही हो रहा है
अग्‍गे दौड़ पिच्‍छे चौड़'
आज कल फिर व्यस्त हूँ। कुछ दिन नेट से दूर रहूँ तो सब कुछ भूल जाती हूँ। बस 4-6 दिन मे फिर से सारे पाठ दोहराती हूँ। आपके समझाने का ढंग इतना सरल है कि एक बार समझ मे आ जाता है। धीरे धीरे सही अब सीख कर ही रहूँगी। गुरूदेव को मेरा प्रणाम। अब इस सफर पर आप मुझे गुरूदेव कहने से नही रोक सकते। बहुत बहुत धन्यवाद। दोबारा सभी पाठ पढने आती हूँ।

गौतम राजऋषि ने कहा…

थोड़ा-सा उलझ गया हूँ गुरूदेव यहाँ इस सबक पर आकर। शायद सब कुछ ठीक ही रहता अगर मैंने तिलक राज साब की टिप्पणी न पढ़ी होती...खैर।

हाँ, वाफ़र का कन्फूजन तो दूर हुआ। शुरूआती दौर में एक ग़ज़ल लिखी थी मैंने जो कि हज़ज की एक उपजाति थी किंतु आपके पुराने पोस्ट में टंकण की त्रुटि की वजह से मैं उसे वाफ़र समझ रहा था। शहरयार साब की ग़ज़ल "ये क्या जगह है दोस्तों...." की बात कर रहा हूं मैं। अब स्पष्ट है वाफ़र।

वैसे ये माँग करना तो शायद ज्यादती होगी आपकी प्रतिबद्धता और व्यस्तता को देखकर कि एक-दो उदाहरण हो संग में कुछ विख्यात शेरो के साथ, लेकिन फिर भी माँग कर रहा हूँ।

अभी इस पोस्ट और पिछले पोस्ट पर फिर से आना पड़ेगा समझदानी की चंद और किवाड़े खोलने के लिये...

शेष छात्रगण कहाँ गुमशुदा हैं, हैरान हूँ।

वीनस केसरी ने कहा…

गुरु जी प्रणाम,

मैं भी वाफर की शंका से ग्रस्त था, और अभी तक था

मैं तो अभी तक नहीं समझ पा रहा था वाफर जो २ साल से मेरे लिए 1212 था आज अचानक इस पोस्ट से 12112 कैसे हो गया |

अभी अभी गौतम भैया का कमेन्ट पढ़ कर पता चला कि वाफर १२११२ होता है और टंकण की त्रुटि की वजह से ये सब भ्रम थे

इससे पिछेली पोस्ट के मेरे कमेन्ट में पूछे एक और सवाल का जवाब अपने आप मिला कि वाफर सप्तकल क्यों है

१२१२ नहीं हैं और १२११२ है इस लिए सात मात्रिक है :)

अभी भी पुरानी पोस्टो में उलझा हुआ हूँ

बहुत जल्द इस पोस्ट के लिए कमेन्ट करता हूँ

वीनस केसरी ने कहा…

गुरु जी प्रणाम

रात के डेढ़ बज रहे हैं और अभी अभी राजीव जी की भेजी हुई पी.डी.एफ. फाईल (जिसे मैंने प्रिंट ले कर बाईंड करवा लिया है) के द्वारा सुबीर संवाद सेवा की पूरी पोस्ट को पढ़ कर खत्म किया है

शुरू से अब तक की सारी पोस्ट को पढ़ लेने के बाद सारे संशय समाप्त हो गए

पहले मुझे ७ स्थाई रुक्न ही ध्यातव्य थे

और कामिल के रुक्न में संशय था क्योकि ७ फरवरी २००८ की पोस्ट में अभी तक रजज और कामिल के लिए २२१२ वज्न लिखे हुए हैं

जिसे मैंने टाईप की गलती मान कर इसका वजन डायरी में २२२१ नोट कर लिया था (अब इतने दिन बाद ये याद नहीं आ रहा कि किस आधार पर २२२१ ही लिखा था)

खैर,,, अब स्पष्ट हो गया है कि कामिल का वज्न २२२१ न हो कर ११२१२ होता है और २२२१ एक अलग ही रुक्न है और इस रुक्न की चर्चा आपने ७ फरवरी २००८ की पोस्ट में की ही नहीं थी

इस लिए मुझे ७ स्थाई रुक्न ही पता थे - और इस तरह मेरे एक और प्रश्न का उत्तर खुद ही मिल गया :)

नई पोस्ट का इंतज़ार है

मुरक्कब को ले कर बहुत से संशय हैं जो दूर होगे

- आपका वीनस

"अर्श" ने कहा…

गुरु देव प्रणाम,
दे से पहुंचा इसके लिए क्षमा चाहूँगा .....
बह'रें दो तरह की मुफ़रद और मुरक्कब ...
मुफ़रद में सात बह'रे..
१. बहरे मुतदारिक
२. बहरे मुतकारिब
३. बहरे हजज
४. बहरे वाफ़र
५. बहरे रजज
६. बहरे कामिल
७. बहरे रमल
अन्य सभी को छोड़ दूँ तो बहरे कामिल और बहरे वाफ़र पर विशेष ध्यान देने की बात है , क्यूंकि अन्य लगभग संतुलित है विन्यास के हिसाब से , वाफ़र में संयुक्ति को ध्यान से पढ़ा याद रखने के लिए और कामिल को याद रखने का तरीका अलग कर लिया अपने चहेते शाईर डा . बशीर बद्र जी की पसंदीदा बह'र के नाम से ... :) :)
मजूफ़ में सबब -ए-खाफिफ़ से एक दीर्घ हटा ली जा रही है !
और जियाफ़त में एक जुज में किसी तरह के घट बढ़ को कहते हैं ....
मुरक्कब का इंतज़ार करूँगा अगली कक्षा के लिए ...
गौतम भाई ने सभी कहा है एक एक शे'र से जो प्रचलित हैं से उदहारण में ले लिए जाते तो और मजा आजाता ... मगर आपकी ब्यस्तता को देखते हुए ... मगर मेरे हिसाब से ये होम वर्क में दे दी जाये सभी को एक एक बह'र का शे'र निकाल लाने के लिए ... :) :)

अर्श

वीनस केसरी ने कहा…

@ अर्श भाई

" मगर मेरे हिसाब से ये होम वर्क में दे दी जाये सभी को एक एक बह'र का शे'र निकाल लाने के लिए ... :) :)"

अर्श भाई ये क्या बात हुई,,, मज़ा नहीं आया :(

मज़ा तो तब है जब होमवर्क मिले कि

सभी को सातों रुक्न का एक एक शेर निकाल लाने के लिए कहा जाए ... :) :)

और हाँ एक बात ध्यान रखी जाय कि बात गुरु जी ने स्थाई रुक्न के सालिम बहर की कि है तो उदाहरण के शेर भी सालिम बहर के ही हों जिसमें कोई जिहाफत न कि गई हो |

अब तो होमवर्क का मज़ा भी आएगा ... है ना ? :):):)

वीनस केसरी ने कहा…

मेरा होमवर्क -

१ - रमल - २१२२ फा ए ला तुन

२१२२, २१२२, २१२२

मैं कभी दीवारों दर था और छत था
अब तो दरवाज़े से बाहर हो गया हूँ - गुरु जी श्री पंकज सुबीर जी

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२ - हजज - १२२२ मु फा ई लुन

१२२२, १२२२, १२२२, १२२२

तुम्हारे मंदिरों से मस्जिदों से इनको क्या लेना
न बच्चों को सिखाओ तुम खुदा और राम का झगडा - गुरु जी श्री पंकज सुबीर जी

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३ - मुतदारिक - २१२ फ ए लुन

२१२, २१२, २१२

सूलियों से गुजारना पड़ा
हमको किश्तों में मरना पड़ा

इतने हालात संगीन थे
खून लफ़्ज़ों में भरना पड़ा - नुसरत ग्वालियरी (सुखद संयोग हो सकता है कि शायद यह शेर आदरणीया नुसरत मेहंदी जी के हों)


२१२, २१२, २१२

खूब नारे उछाले गए
लोग बातों में टाले गए - लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

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४- मुतकारिब १२२ फ ऊ लुन

१२२, १२२, १२२, १२२

सतह के समर्थक समझदार निकले
जो गहरे में उतरे गुनाहगार निकले

बड़ी शानोशौकत से अखबार निकले
कि आधे अधूरे समाचार निकले - शेरजंग गर्ग

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रजज, कामिल, वाफर भी खोज कर फिर से आता हूँ

वीनस केसरी ने कहा…

गतांक से आगे --

५- रजज २२१२ मुस्तफ्यलुन

इस बह'र पर कई शेर मिले मगर जो मुझे पसंद आए वो हैं -

२१२२, २२१२, २२१२, २२१२

सोचा नहीं अच्छा बुरा, देखा-सुना खुछ भी नहीं
माँगा खुदा से रात दिन, तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे, पूजा तुझे
मेरी वफ़ा मेरी खता, तेरी खता कुछ भी नहीं - श्रद्धेय बशीर बद्र साहब


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कामिल का कोई उदाहरण नहीं मिल सका तो गुरु जी ने बाजीगर फिल्म का ये गाना बताया

६- कामिल ११२१२ मु त फा ए लुन

११२१२, ११२१२, ११२१२, ११२१२
तू पसंद है किसी और की, तुझे चाहता कोई और है

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७- वाफर १२११२ मु फा ए ल तुन

इस रुक्न का कोई सालिम तो क्या आधा-टुकड़ा, कटा-पिटा शेर भी नहीं मिल सका

अब खुद प्रयास करता हूँ कि शायद कुछ लिख सकूं


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८- २२२१ इस स्थाई रुक्न पर बहुत पहले कुछ शेर लिखे थे खोजता हूँ शायद मिल जाय


- वीनस

वीनस केसरी ने कहा…

लीजिए अपना एक शेर तो तुरंत ही मिल गया

८ - २२२१

२२२१,२२२१,२२२१,२२२१

शब् भर चीखता रोता रहा पर सो रहे थे लोग
जो केवल था मेरा छीन कर भी रो रहे थे लोग - वीनस केशरी

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

वीनस भाई ने अच्छे अच्छे उदाहरणों को को निकाल एक साथ रख दिया. शुक्रिया. होमवर्क पर ध्यान देना पहले जरुरी है.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
वीनस केसरी ने कहा…

नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?
नई पोस्ट ?

राजीव जी की कही को ही कापी पेस्ट कर रहा हूं

हालाँकि पता है की जब नई पोस्ट लगेगी तो आपकी मेल आ ही जायेगी लेकिन फिर भी बार बार आकर देखता हूँ.

Ankit ने कहा…

प्रणाम गुरु जी,
"ग़ज़ल का सफ़र", अनूठा है, यूँ तो ये पाठ सुबीर संवाद सेवा पे भी पढ़ा है मगर जितनी अधिक बार पढो कांसेप्ट उतना clear हो रहा है.
तिलक जी ने एक अच्छी बात कही है.

कामिल और वाफर का भ्रम दूर हुआ और होमवोर्क में उदाहरण अच्छा है और वीनस ने दे भी दिए हैं, कोशिश करता हूँ कि अगली बार उदाहरन लेकर आऊं.

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

शुक्रिया पंकज सुबीर भाई, अपने इस मकान की चाबी देने के लिए|

'भाई टिप्पणी देना, और वो भी बेलाग टिप्पणी देना ज़रूरी होना चाहिए' ये बात सौ फीसदी सही है, और इसीलिए बोले तो अपुन भी अपनी हाज़िरी लगा देते हैं|

पढ़ते पढ़ते बहुत बार महसूस हुआ कि ये और वो तो हमें पता था, इस तरह नहीं तो उस तरह| और साथ में ये भी क़ुबूल किया दिल ने कि, फिर भी उसे फिर से पढ़ना, गुनना वाकई हमारे हित में ही होता है|

मिट्टी से मकान और फिर मात्रा से ग़ज़ल तक वाला उदाहरण जोरदार रहा| तिलक भाई की कबूतर और घोंसला वाली बात तो सर्वकालीन अकाट्य सत्य है| ज़रूरत है तो बस उस का अनुपालन करने की|

शंकर के डमरू से निकले अक्षर / नाद और लोहा पीटने पर के ध्वनि घोष के बाद तरंगित होती शेष ध्वनि वाले उदाहरण वाकई सरलता से बात को व्यक्त करने में समर्थ हैं|

पढ़ कर कमेंट न देने वाले गुणीजन हर कालखण्ड में मौजूद रहते हैं, ये भी सिद्ध हुआ - पढ़ते पढ़ते|

बताई हुई बातों को पलट पलट के दोहराते हुए रिविजन करवाने वाला वीनस का स्टाइल बोले तो जोरदार लगा|

कुल मिला के पल्ले ये पड़ा क़ि - चढ़ जा बेटा छत्त पे भली करेंगे राम...........................

सरसुति के भण्डार की, बड़ी अपूरब बात|
ज्यों-ज्यों खरचौ त्यों बढै, बिन खरचैं घट जात||

पंकज भाई अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी|