सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

कहां से आयी ये ध्‍वनियां , जिनसे कि हमारी कविता बनी । कविता जिसका मतलब गीत भी है ग़ज़ल भी है, छंद भी है और वो सब कुछ है जिसको गाया जा सकता है ।

कई बार हम सब के मन में आता है कि अक्षर कहां से बना और यदि अक्षर बना तो फिर शब्‍द कैसे बने । फिर ये भी कि शब्‍द बनाने के लिये क्‍या तकनीक का उपयोग किया गया । या अक्षर बनाने के पीछे किस प्रकार की तकनीक का उपयोग किया गया । ये प्रश्‍न ऐसे हैं जिनका कोई ठीक उत्‍तर नहीं तलाशा जा सकता है । यदि हम भारतीय श्रुतियों की बात करें तो यहां पर शब्‍द की सत्‍ता को हमेशा ही सर्वोपरि माना गया है । शब्‍द को ब्रह्म का दर्जा भी दिया गया है । यदि शब्‍द की सत्‍ता सबसे ऊपर है तो फिर ये शब्‍द ये अक्षर आये कहां से । श्रुतियां कहती हैं कि शिव के डमरू से ही सारे अक्षरों की उत्‍पत्ति हुई है । मान्‍यता को ही यदि माना जाए तो शिव के डमरू से तांडव के दौरान हमारी वर्णमाला की रचना हुई । इन दिनों हिंदी को लेकर कई सारी बातें हो रही हैं । कई सारी बाते अर्थात हिंदी बची भी रहेगी या नहीं । क्‍या अंग्रेजी इसको समाप्‍त कर देगी । वगैरह वगैरह । संस्‍कृत जिसको कि आदि भाषा कहा जाता है तथा जिससे हमारे उपमहाद्वीप की सारी भाषाएं बनी हैं, वह मेरे विचार से इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं है । संस्‍कृत का नाम इसलिये  ले रहा हूं कि भले ही वो प्रारंभिक दौर की हिंदवी हो, हिंदी हो, उर्दू हो इन सबका जन्‍म संस्‍कृत की ही कोख से हुआ है । और हिंदी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसके पास मुंह से निकलने पाले हर स्‍वर के लिये कोई न कोई शब्‍द है अन्‍यथा तो दुनिया की कई सारी भाषाओं के पा टठडढ है ही नहीं । हिंदी में जो लिखा जाता है वही उच्‍चारण भी किया जाता है । अंग्रेजी में तो जैसा जार्ज बर्नाड शा ने कहा था कि ये इतनी ग़रीब है कि उसमें GHOTI को चाहें तो फिश भी कह सकते हैं । क्‍योंकि GH से कफ में बन जाता है O से वीमन में बनती है और TI से नेशन में श बनता है तो आप इसको फिश भी कह सकते हैं । ये मेरा नहीं जार्ज बर्नाड शा का कथन है अंग्रेजी के सबसे बड़े विद्वान का ।

खैर तो बात हो रही थी कि कहां से आए स्‍वर और कहां से बनी मात्राएं । जब काव्‍य आया तो उसके साथ ही आईं मात्राएं । क्‍योंकि काव्‍य को नापने के लिये कोई तो पैमाना होना ही चाहिये था । तो बस हुआ ये कि लघु और दीर्घ के रूप में मात्राएं बनाई गईं । मात्राएं अर्थात वजन । हिंदी के छंदों में तो खैर अलग तरीके से मात्राओं को गिना जाता था लेकिन जब अरबी और फारसी का काव्‍य शास्‍त्र जन्‍मा तो उसमें मात्राओं को गिनने का तरीका अलग किया गया । कहते हैं कि किसी लोहपीटे द्वारा लोहे को पीटे जाने के स्‍वर को सुनकर खलील बिन अहमद के दिमाग में मात्राओं का जन्‍म हुआ । या यूं कहें कि नाद में होने वाले वज़न का पहले पहल खयाल आया । मूल रूप से शिक्षक अल खलील बिन एहमद अल फरहीदी  ने जब नाद को सुना तो उनके दिमाग़ में लय ने जन्‍म लिया । कितना साम्‍य है कि हम भी वही कहते हैं कि शिव के डमरू से होने वाले नाद से मात्राओं  ने जन्‍म लिया और लगभग यही बात अरबी फारसी में भी है । खैर तो बसरा के शिक्षक ने जब लोहापीटे द्वारा लोहे को पीटे जाने की ध्‍वनि सुनी तो उसमें से होने वाली मात्राओं की तरफ उनका ध्‍यान गया । आपने कभी लोहा पीटे द्वारा लोहे पीटने की ध्‍वनि सुनी हो या नहीं है । नहीं सुनी हो तो एक बार सुनियेगा ज़रूर । उसमें जोरदार प्रहार की आवाज़ के ठीक पीछे एक छोटी सी आवाज़ होती है । बस उसी को सुनकर लाम ( लघु ) और गाफ़ ( दीर्घ) की परिकल्‍पना की खलील बिन अहमद ने । मैंने कई बार लोहापीटों के पास बैठकर काम करवाया है । उनके काम में एक अजीब सा लास्‍य होता है । एक अजीब सी लय जो अपने आप में संगीत होती है । आगे जब भी मौका मिले तो लोहे को कोई काम करवाने स्‍वयं जाएं और मेहसूस करें उस अनुभव को जिसे अरबी फारसी के काव्‍य के जन्‍मदाता खलील बिन अहमद ने मेहसूस किया था ।

लाम और गाफ़  इन दोनों मात्राओं के जन्‍म लेने के बाद जो ज़रूरी था वो ये था कि इनको अब एक तरतीब दी जाए । एक निश्चित क्रम दिया जाये ताकि कविता का भी एक तय विन्‍यास हो सके । हिंदी काव्‍य शास्‍त्र तथा रोमन काव्‍य शास्‍त्र के बहुत अच्‍छे ज्ञाता खलील बिन अहमद को ये पता था कि हिंदी की तरह मात्रा विन्‍यास यहां नहीं चल सकता क्‍योंकि यहां पर संयुक्‍त अक्षरों का खेल होता है । सो उन्‍होंने सब कुछ नये तरीके से किया । उन्‍होंने ही इन मात्राओं का विन्‍यास बनाया और फिर उनका क्रम निर्धारित किया । उच्‍चारण का तरीका बनाया और उन्‍होंने ही प्रारंभ की पन्‍द्रह बहरों को बनाया । बाद में चार और बहरें दूसरे विद्वानों ने बनाई और इस प्रकार कुल मिलाकर उन्‍नीस बहरें हों गईं । उन्‍नीस बहरें अर्थात स्‍थाई बहरें या सालिम बहरें । मुजाहिफ बहरें तो कई हैं । उन्‍होंने गाफ या दीर्घ मात्राओं के दायरे में उन दो लघु मात्राओं को भी ले लिया जिनमें कोई एक दूसरे में समा रही हो । जैसे हम, तुम, कब, अब ।  ये एक नया तरीका हुआ मात्राओं को गिनने का । यहां पर गिनने के बजाय उनके वजन से काम लिया गया । बात वही कि लोहापीटे द्वारा लोहे को पीटे जाने में कोई बात नहीं थी बस नाद का वजन था । लाम 1 लघु, गाफ़ 2 दीर्घ  

जुज़ -  जब मात्राओं का जन्‍म हो गया तो उसके बाद अब बारी थी मात्राओं के विन्‍यास बनाने की । मात्राओं के विन्‍यास का मतलब जुज़ बनाने की । मात्राओ के गुच्‍छे बनाने की ताकि उनसे फिर कुछ तय तरतीब बना दी जाएं  । कुल मिलाकर ये कि शेरों से ग़ज़ल बनती है, मिसरों से शेर बनते हैं, रुक्‍नों से मिसरे बनते हैं तो फिर रुक्‍न बनाने में किस प्रकार की तकनीक का उपयोग किया गया । ये कि ये रुक्‍नों के संगठन में मात्राओं का कौन सा क्रम तय किया गया । रुक्‍नों का संगठन क्‍या होता है । तो मात्राओं का वो विन्‍यास  जिससे रुक्‍न बनाये गये उसको जुज़  या अजज़ा  कहा गया । अजज़ा से चकराइये मत दरअसल में एकवचन-बहुवचन का खेल है जैसे शेर-अशआर, रुक्‍न-अरकान, जुज़-अजज़ा । तो ये रुक्‍न जो कि बनाये गये ये कुल तीन प्रकार के बनाये गये । या यूं कहें कि मात्राओं का कुल तीन प्रकार का विन्‍यास किया गया ।

1-सबब 2-वतद 3-फासला इन्‍हीं तीनों से बन गई सारी बहरें वो सब कुछ जो हम करते हैं मसलन फाएलातुन, फाएलुन वगैरह वगैरह । मगर वहां तक तो पहुंचने में हमें अभी समय है अभी तो हम बात कर रहे हैं जुज़बंदी की । तो अगले अंक में जानते हैं कि ये जुज़ ( वोडाफोन वाले जूजू नहीं )  कितने होते हैं और उनके भी कितने प्रकार होते हैं ।

कोशिश की जाएगी कि एक माह में कम से कम दो पोस्‍ट लगें । लेकिन व्‍यस्‍तता के कारण पिछले माह एक ही लग पाई । आगे से ऐसा न हो इस बार का ध्‍यान रखा जाएगा ।

सारांश - मिट्टी, मिट्टी से ईंट, ईंटों से कतारें, कतारों से दीवार, दीवारों से कमरा, कमरों से मकान,

               मात्रा, मात्राओं से जुज़, जुज़ से रुक्‍न, रुक्‍नों से मिसरे, मिसरों से शेर और शेरों से ग़ज़ल