गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

बहुत दिनों के बाद आज यहां पर कुछ लगा रहा हूं । तो आज चलिये यहां पर बात करते हैं सप्‍तमात्रिक रुक्‍नों की ।

गज़ल का सफ़र ये ब्‍लाग जब शुरू किया था तो ये सोचा था कि इस ब्‍लाग पर इस प्रकार से पोस्‍ट लगाऊंगा कि वो एक पुस्‍तक का आकार ले ले । क्‍योंकि इस विधा पर एक पुस्‍तक लिखने की इच्‍छा भी है और ये भी पता है कि अलग से बैठ कर पुस्‍त्‍क लिखने का समय नहीं है । तो इस ब्‍लाग के पीछे स्‍वार्थ ये था कि इस बहाने पुस्‍तक भी लिखा जायेगी । इसको सीमित पाठकों तक रखने के पीछे कारण ये था कि यदि सभी ने ब्‍लाग पर पढ़ लिया तो फिर पुस्‍तक कौन पढ़ेगा । खैर जो भी हो और जैसा भी लेकिन ये बात तो है कि योजना वैसे नहीं चल पाई जैसा कि सोचा था । इस बीच इस ब्‍लाग को लेकर एक आदरणीय भी नाराज़ हो गये । उनका कहना था कि मैंने उनसे शिवना प्रकाशन के लिये ग़ज़ल की तकनीक पर पुस्‍तक लिखने को कहा और अब मैं स्‍वयं ही इस तकनीक पर ब्‍लाग में विस्‍तार से लिखने लगा । मैंने उनसे बात की, उनको समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने । खैर ये तो सब समझ समझ का फेर होता है । इस बीच काफी कुछ होता गया । और ये भी लगा कि कहानी वो विधा है जो मुझे पहचान दिलवा रही है । हालांकि ब्‍लाग पर मेरी पहचान ग़ज़ल के कारण है । फिर भी कहानी को लेकर ज्‍यादा गंभीर होना है ये बात कही न कहीं मन में थी । और ज्ञानपीठ नवलेखन के बाद से तो ये बात और दिमाग़ में समा गई कि कहानी अधिक समय मांग रही है ।

खैर जो हो, जैसा हो चलिये आज हम कुछ आगे चलते हैं और अब पिछली पोस्‍ट में छोड़ी हुई बात को ही आगे बढ़ाते हैं । पिछली बार हमने पंचमात्रिक रुक्‍नों की बात की थी, इस बार सप्‍त मात्रिक रुक्‍नों की बात करते हैं । आगे बढ़ने से पहले चलिये पहले पिछला कुछ दोहरा लेते हैं नहीं तो आगे पाठ पीछे सपाट की स्थिति बन जायेगी ।

हमने पिछले पाठों में देखा था कि मात्रा से जुज, जुज से रुक्‍न, रुक्‍न से मिसरा, मिसरों से शेर और शेर से ग़ज़ल बनती है ।  यहां ये बात जान लें कि जुज  का बहुवचन अजजा  है, रुक्‍न  का बहुवचन अरकान  है और शेर का  अशआर ।

जुज :  जुज जो हमने देखे थे वे सबब (द्विमात्रिक), वतद (त्रैमात्रिक), फासला (चर्तुमात्रिक, पंचमात्रिक ) थे । उसमें भी सबब के दो प्रकार सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2 तथा सबब-ए-सक़ील 11, वतद के दो प्रकार वतद-ए-मजमुआ 12, वतद-ए-मफ़रूफ़ 21  और फासला के दो प्रकार फासला-ए-सुगरा 112, फासला-ए-कुबरा 1112, इस प्रकार से कुल हमारे हाथ में 6 प्रकार के जुज आये । जिनसे हमें रुक्‍न बनाने हैं ।

रुक्‍न -  कम से कम दो तथा अधिक से अधिक तीन जुजों के मेल से बनते हैं रुक्‍न । रुक्‍न  भी दो प्रकार के होते हैं खुमासी ( पंचमात्रिक) और सुबाई ( सप्‍तमात्रिक) । रुक्‍नों के बारे में हमने ये देखा था कि कुल आठ प्रकार के स्‍थाई रुक्‍न हैं । ये जो कुल आठ प्रकार के स्‍थाई रुक्‍न हैं इनसे ही सारे उपरुक्‍न बनाये गये हैं । ये आठ रुक्‍न हैं फऊलुन, फाएलुन, फाएलातुन, मुस्‍तफएलुन, मुफाईलुन, मफऊलातु, मुतफाएलुन और मुफाएलतुन ।  इन आठ प्रकार के रुक्‍नों में से हमने पहले दो पंचमात्रिक रुक्‍नों (खुमासी) के बनने की कहानी पिछली पोस्‍ट में जान ली थी जिनके बारे में संक्षिप्‍त सा रिविज़न ये

खुमासी रुक्‍न-

ये दो प्रकार के होते हैं ।

1) फऊलुन जब पहले एक वतद-ए-मजमुआ 12 रख कर उसके पीछे एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2 को जोड़ा जाता है तो ये रुक्‍न बनता है ।

वतद-ए-मजमुआ 12 + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2 = 122 फऊलुन  ( बहरे  मुतकारिब का स्‍थाई रुक्‍न )

2) फाएलुन जब पहले एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2  रख कर उसके पीछे एक वतद-ए-मजमुआ 12 को जोड़ा जाता है तो ये रुक्‍न बनता है ।

सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2 + वतद-ए-मजमुआ 12  = 212 फाएलुन  ( बहरे  मुतदारिक का स्‍थाई रुक्‍न )

और अब आज बात करते हैं सप्‍त मात्रिक रुक्‍नों ( सुबाई ) की ।

सुबाई रुक्‍न - 

ये कुल तीन प्रकार के रुक्‍न होते हैं । मफरूफी, मजमुई, फासलादारआइये अब इनकी बात करते हैं ।

मफरूफी सुबाई रुक्‍न : 

जब किसी रुक्‍न को बनाने के लिये एक वतद-ए-मफरूफ़ 21  के साथ दो सबब-ए-ख़फीफ़ 2 संयुक्‍त किये जाते हैं तो उस प्रकार के संयोग ये जो रुक्‍न बनता है उसको हम मफ़रूफ़ी सुबाई रुक्‍न  कहते हैं । चूंकि इसके संगठन में मुख्‍य भूमिका में वतद-ए-मफरूफ़ 21  है इसलिये इसे मफरूफी रुक्‍न कहते हैं ।  ये दो प्रकार के होते हैं ।

1) फाएलातुन :  जब वतद-ए-मफरूफ़ 21   को पहले स्‍थान पर रख कर उसके साथ दो सबब-ए-ख़फीफ़ 2 उसके पीछे एक के बाद एक जोड़ दिये जाते हैं तो उससे ये रुक्‍न बनता है ।

वतद-ए-मफरूफ़ 21   +  सबब-ए-ख़फीफ़ 2 + सबब-ए-ख़फीफ़ 2 = 2122 फाएलातुन ( बहरे रमल का स्‍थाई रुक्‍न )

2) मफऊलातु : जब पहले दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2  एक के बाद एक रख कर उसके बाद एक वतद-ए-मफ़रूफ़ 21 जोड़ा जाता है तो उससे ये रुक्‍न बनता है ।

सबब-ए-ख़फीफ़ 2 + सबब-ए-ख़फीफ़ 2 + वतद-ए-मफरूफ़ 21 = 2221 मफ़ऊलातु ( इस रुक्‍न पर कोई भी मुफ़रद बहर नहीं है । ये एक मात्र रुक्‍न है जिस पर कोई भी मुफ़रद बहर नहीं है । )

मजमुई सुबाई रुक्‍न : 

जब किसी रुक्‍न को बनाने में एक वतद-ए-मजमुआ 12 तथा उसके साथ दो सबब-ए-ख़फीफ़ 2  संयुक्‍त किये जाते हैं तो उससे ये रुक्‍न बनता है, चूंकि इसके संगठन में मुख्‍य भूमिका में वतद-ए-मजमुआ  है इसलिये इसे मजमुई रुक्‍न कहते हैं । ये भी दो प्रकार के होते हैं ।

1)  मुफाईलुन : जब वतद-ए-मजमुआ 12  को पहले स्‍थान पर रख कर उसके साथ दो सबब-ए-ख़फीफ़ 2 उसके पीछे एक के बाद एक जोड़ दिये जाते हैं तो उससे ये रुक्‍न बनता है ।

वतद-ए-मजमुआ 12    +  सबब-ए-ख़फीफ़ 2 + सबब-ए-ख़फीफ़ 2 = 1222 मुफाईलुन ( बहरे हज़ज का स्‍थाई रुक्‍न )

2) मुस्‍तफएलुन : जब पहले दो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2  रख कर उसके बाद एक वतद-ए-मजमुआ 12 जोड़ा जाता है तो उससे ये रुक्‍न बनता है ।

सबब-ए-ख़फीफ़ 2 + सबब-ए-ख़फीफ़ 2 + वतद-ए-मजमुआ 12 = 2212 मुस्‍तफएलुन ( बहरे रज़ज का स्‍थाई रुक्‍न)

फासलादार सुबाई रुक्‍न :

जब किसी रुक्‍न को बनाने में एक फासला-ए-सुगरा 112 और एक वतद-ए-मजमुआ 12 को संयुक्‍त किया जाता है तो उसको फासलादार रुक्‍न कहते हैं । चूंकि इसके बनाने में जो दो रुक्‍न उपयोग हो रहे हैं उनमें बड़ा रुक्‍न फासला-ए-सुगरा 112   है इसलिये इसको फासलादार सुबाई रुक्‍न कहते हैं । इसके भी दो प्रकार हैं ।

1) मुतफाएलुन :  जब एक फासला-ए-सुगरा 112 और एक वतद-ए-मजमुआ 12 को इस प्रकार से संयुक्‍त किया जाता है कि फासला-ए-सुगरा 112  पहले आये तथा वतद-ए-मजमुआ 12 बाद में तो उससे ये रुक्‍न बनता है ।

फासला-ए-सुगरा 112 + वतद-ए-मजमुआ 12 = 11212 मुतफाएलुन ( बहरे कामिल का स्‍थाई रुक्‍न ) 

2) मुफाएलतुन : जब एक फासला-ए-सुगरा 112 और एक वतद-ए-मजमुआ 12  को इस प्रकार से संयुक्‍त किया जाता है कि वतद-ए-मजमुआ 12 पहले आये तथा  फासला-ए-सुगरा 112  बाद में तो उससे ये रुक्‍न बनता है ।

वतद-ए-मजमुआ 12 + फासला-ए-सुगरा 112 = 12112 मुफाएलतुन ( बहरे वाफ़र का स्‍थाई रुक्‍न ) 

विशेष बात : कुछ रोचक बातें भी चलिये जान ली जाएं । रोचक बात ये कि फाएलातुन नाम का जो रुक्‍न है वह मुस्‍तफ़एलुन  नाम के रुक्‍न की मिरर इमेज ( दर्पण छवि ) है । कैसे नीचे देखें ।

2122 : 2212

यदि बीच की दो बिंदियों को दर्पण माना जाए तो 2122  ठीक प्रतिबिम्‍ब हमें 2212 में मिल रहा है ।

इसी प्रकार से यदि हम मुफाईलुन तथा मफऊलातु  को देखें तो ये दोनों भी एक दूसरे की दर्पण छवि बनाते हैं ।

1222 : 2221

1222 का ठीक प्रतिबिम्‍ब हमें 2221 में मिल रहा है ।

एक और रोचक बात ये कि मुफाईलुन, फाएलातुन, मुस्‍तफएलुन, मफऊलातु में एक लघु मात्रा क्रमश: पहले, दूसरे, तीसरे तथा चौथे तक खिसकती जाती है । 1222, 2122, 2212, 2221 ।

तो इस प्रकार से बनते हैं ये आठों रुक्‍न, ये आठ रुक्‍न हैं फऊलुन, फाएलुन, फाएलातुन, मुस्‍तफएलुन, मुफाईलुन, मफऊलातु, मुतफाएलुन और मुफाएलतुन जिनसे बनती हैं हमारी सारी की सारी बहरें । इन्‍हीं आठों रुक्‍नों से बनती हैं हमारी सातों मुफरद बहरें मुत‍कारिब, मुतदारिक, रमल, रज़ज, हज़ज, कामिल और वाफ़र ।

तो चलिये मिलते हैं अगले अंक में,..... यदि आप लोगों की मिलने की इच्‍छा होगी तो

और हां उपस्थिति दर्ज नहीं हुई तो कक्षा से नाम कट जायेगा । ये नियम अब कड़ाई से पालन किया जायेगा । इसी अंक से कुछ छात्रों के नाम काट दिये गये हैं ।

33 टिप्‍पणियां:

वीनस केसरी ने कहा…

गुरु जी प्रणाम,
अच्छा हुआ की परसों रात ही सारे पाठ दोहरा लिए, आज का नया पाठ भी अच्छे से समझ में आ गया
मैंने पहले जो सबब, वताद और फासला के जो उदाहरण दिए थे वो गलत थे नए उदाहरण सम्बंधित पोस्ट में कमेन्ट के रूप में लिखे है

फिर देखा तो पाया सबब पर लगभग सभी के उदाहरण गलत है :)
खुमासी रुक्न अच्छे से समझ लिया था
सुबाई रुक्न भी समझ रहा हूँ
मफरूफी, मजमुई, फासलादार तीन नए शब्द मिले इनसे मिल कर बड़ा अच्छा लगा

--
आपका वीनस केसरी

नीरज गोस्वामी ने कहा…

गुरुदेव...बहुत कठिन है डगर पनघट की...लेकिन आप साथ हैं तो डगर आसान होती जाएगी...ग़ज़ल के मूल तत्वों को यूँ का यूँ याद रखना बहुत मुश्किल काम है...ये विधा जितनी सीधी लगती है उतनी ही पेचीदा है...सीखना जारी है...जारी रहेगा...आप जब इतनी मेहनत से पढ़ा रहे हैं तो हम और अधिक मेहनत करके इसे समझेंगे....

नीरज

तिलक राज कपूर ने कहा…

नतमस्‍तक हूँ उन प्रयासों के लिये जो एक गंभीर विषय को इस सरलता से प्रस्‍तुत करने में लगते हैं। न जाने कितनी उर्दू पढ़नी पड़ती इतना जानने के लिये, देवनागरी में यह संक्षेप धीरे-धीरे ग़ज़ल की जड़ों तक पहुँच ही जायेगा।

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

फिलहाल तो उपस्थिति दर्ज़ करिये... विस्तार से पढ़ूँगी तो शंकाएं उठाऊँगी, यदि कोई हुई तो।

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
‘सज्जन’ धर्मेन्द्र ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
‘सज्जन’ धर्मेन्द्र ने कहा…

आदरणीय सुबीर जी, मैं भी उपस्थित हूँ। शुरू से पढूँगा तभी कुछ समझ में आएगा। तो मैं चला पहले पाठ से पढ़ने।

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) ने कहा…

गुरु जी पिछले पाठ फिर से पढकर आ रहा हूँ|

सब कुछ समझ में आ गया सिर्फ एक बात के जब फासला -ए-कुवरा की अरकान बनाने में आवश्यकता ही नहीं है तो इसे ईजाद क्यों किया गया? क्या इस जुज़ का कहीं पर प्रयोग होता है?

वीनस केसरी ने कहा…

गुरु जी आपने पिछली पोस्ट में हम लोगों से उदाहरण मांगे थे मगर अलग अलग उदाहरण आए और अभी तक स्पस्ट नही हुआ है की आखिर इनमें से सही क्या है ?

सबब-ए-खफीफ - का उदाहरण (हम, तुम, सब, कह, रुक, चल, बढ़ आदि) सही है या फिर ( जो, तू, पी, खा, सो, रो आदि ) या फिर दोनों ?

{मेरे हिसाब से ( जो, तू, पी, खा, सो, रो आदि) सही होगा }


सबब-ए-सकील का उदाहरण (हम, तुम, सब, कह, रुक, चल, बढ़ आदि) सही होगा या (सुमनन में "सुम"न,,,,,, बदल में "न ब" )

{मेरे हिसाब से (हम, तुम, सब, कह, रुक, चल, बढ़ आदि) सही होगा }

कृपया समाधान करें

वीनस केसरी ने कहा…

गुरु जी एक और डाउट है,

यदि
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = (एक मुतहर्रिक और एक साकिन) १+१ = 2
सबब-ए-सक़ील = (दो मुतहर्रिक) ११ (जिसे हम जोड़ कर २ नहीं करेंगे)

वतद-ए-मजमुआ = 12
वतद-ए-मफ़रूफ़ 21

तो फिर फासला के मूल रुक्न तो इनका ही जोड़ हुए
जैसे
११२ = (सबब-ए-सक़ील ११) + (सबब-ए-ख़फ़ीफ़ २)
१११२ = (सबब-ए-सक़ील ११) + (वतद-ए-मजमुआ १२)

तो फिर फासला के जुज मूल कहाँ रह गए
इसका उत्तर यही समझ आता है की
सबब-ए-सक़ील = ११ दो लघु मुतहर्रिक को जोड़ कर २ हो जायेगा

जैसे - ह + म = हम

इसका एक और प्रमाण यह भी मिलता है की "यहाँ" और "अगर" दोनों ही वतद-ए-मजमुआ है,,, यदि ऐसा न होता तो "अगर" को हम वतद-ए-मजमुआ में नहीं रख सकते है क्योकि "अगर" में अ + गर है और गर दो मुतहर्रिक है और उसे हम जोड़ कर २ मान रहे है

यदि सबब-ए-सक़ील = ११ को हम जोड़ कर गुरु कर सकते हैं तो मेरा कांसेप्ट सही है नहीं तो मैं बहुत उलझ गया हूँ

कृपया समाधान करें

-- आपका वीनस केसरी

Rajeev Bharol ने कहा…

हाजिरी लगा रहा हूँ. नाम न काटें. पोस्ट पढ़ कर विस्तार से टिप्पणी बाद में करता हूँ.

Rajeev Bharol ने कहा…

इस पोस्ट को पढ़ कर कुछ नए प्रशन उभरे हैं लेकिन लगता है की अगर पुराने पोस्ट फिर से पढूं तो शायद कुछ उत्तर वैसे ही मिल जाएँ. पहले पुराने पोस्ट एक बार फिर पढता हूँ.....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Gurudev ... abhi to airport mein baitha hun ... safar ki taiyaari hai ... 18 ke baad aaraam se padhunga ... mujhe vaise bhi kuch jyaada samay lagta hai samajkhne mein ...

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

शुक्रिया पंकज भाई ज्ञान की गंगा को पुन: बहती रखने के लिए| पढ़ रहे हैं| हाज़िरी लगा लेना|

लड्डू खाने से ज़्यादा दुष्कर होता है लड्डू बनाना; और उस से भी कहीं अधिक दुष्कर होता है उस लड्डू को बनाने की विधि का रट्टा मारना| बेचारे हलवाई को तो पता ही नहीं होता कि वो जिस चाशनी को उंगली से माप लेता है उस के लिए भी एक वैज्ञानिक विधि है................... है न मज़े की बात|

आनंद आ रहा है ग़ज़ल की बातों को तार्किक धरातल पर पढ़ कर| अरकान के मिरर रीफलेक्शन वाला मेटर दिलचस्प लगा|

पंकज भाई आप का यह साहित्यिक प्रयास सहज ही वंदनीय है| इसे जारी रखिएगा|

RAVI KANT ने कहा…

गुरुजी, प्रणाम।
ब्लाग पर पढ़ लेने से पुस्तक का महत्त्व कम नहीं हो सकता। पुस्तक पढ़ने का आनंद अलग ही है और तिस पर ये तो पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी होगा। पुनश्च, देवनागरी में इस विषय पर इन बारीकियों के साथ तो शायद ही कोई किताब है। कहना न होगा कि अगर ये किताब छपी तो निस्संदेह हिंदी गज़लप्रेमियों के बीच समुचित आदर पायेगी।

पाठ को रिवाइज कर लिया है।

@ वीनस,
थोड़ा और होमवर्क करो। कोई भी बहर उठाओ उसमें देखों अरकान में सबब खफ़ीफ़ आदि कहां हैं और गज़ल लिखते वक्त वहां किस तरह के शब्द प्रयुक्त हुये हैं।

वीनस केसरी ने कहा…

कोई भी बहर उठाओ उसमें देखों अरकान में सबब खफ़ीफ़ आदि कहां हैं

@ रवि भाई -
अरकान तो मुकम्मल हो ही जायेंगे यदि मुझे पता ही नहीं की मात्राओं के योग को कौन सा जुज मानूं तो तख्ती करके फ़ायदा ही क्या

जैसे आपका एक शेर है -

प्यार के धागे से दिल के जख्म सीकर देखना
जी सको तो जिंदगी को यूं भी जीकर देखना

२१२२ २१२२ २१२२ २१२

प्यार के धा,,,,गे से दिल के,,,,, जख्म सीकर,,,,, देखना

अब इसमें रुक्न मिल गए, फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन

खास बात यह है की "दिल" या दल को हिंदी में दो स्वतंत्र लघु मानते हैं और अरूज़ में हलंत के साथ दिल् और दल् को दीर्घ |
यदि इसे सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कहते हैं तो सबब-ए-सक़ील = (दो मुतहर्रिक) का उदाहरण "सुनयन का "सु न" होगा ?


इस हिसाब से तो सब कुछ सही है और सब कुछ स्पस्ट भी मगर अब एक बड़ा सवाल उठता है की यदि जुज को सबसे छोटी इकाई मानी गई है जिसे तोडा नहीं जा सकता तो फासला के जुज कैसे टूट रहे हैं और अगर टूट ही रहे हैं तो इन्हें मूल रुक्न किस आधार पर कहा जाए

एक को सही मानो तो दूसरा सवाल खड़ा हो रहा है
दूसरे को सही मानो तो पहले सवाल का जवाब नहीं मिलता


रवि भाई यदि आपको जुजबंदी के नियम स्पस्ट हो तो प्लीज़ प्लीज़ बताएं

वीनस केसरी ने कहा…

एक और बड़ा सवाल है की यदि हम "सबब-ए-सक़ील" = (दो मुतहर्रिक) ११ (जिसे हम जोड़ कर २ नहीं करेंगे)
तो हमारे मूल रुक्न को बनाने में सबब-ए-सक़ील की क्या भूमिका है ?

पुराणी और नई पोस्ट के अनुसार -

1 बहरे मुतदारिक : स्‍थाई रुक्‍न फाएलुन ( 212 ) = २ + १२
2 बहरे मुतकारिब - स्‍थाई रुक्‍न फ़ऊलुन ( 122 ) = १२+ २
3 बहरे हजज : स्‍थाई रुक्‍न मुफाईलुन ( 1222) = १२+२+२
4 बहरे वाफ़र : स्‍थाई रुक्‍न मुफाएलतुन ( 12112) = १२ + ११२
5 बहरे रजज : स्‍थाई रुक्‍न मुस्‍तफएलुन ( 2212) = २+२+१२
6 बहरे कामिल : स्‍थाई रुक्‍न मुतफाएलुन ( 11212 )= ११२+ १२
7 बहरे रमल : स्‍थाई रुक्‍न फाएलातुन ( 2122 ) = २१ +२+२

बाकी के चार जुज तो रुक्न बनाने के काम में प्रयुक्त हुए २ , १२, २१, ११२,

परन्तु १११२ और ११ का प्रयोग कहाँ किया गया, जिस जुज से कोई मूल रुक्न ही नहीं बन रहा उन दो जुज का क्या प्रयोग है ?

हम्म

गुरु जी मुझे समझने में इतना दिमाग खपाना पड़ रहा है आप इतना सब लिखते हैं

आपको बारम्बार प्रणाम

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

राणा ने भी पूछा था और अब वीनस ने भी दोहरा दिया है कि 5 मात्रा वाले रूक्न फासला ए कुबरा 1112 का कहाँ प्रयोग हुआ है, तो इस पर प्रकाश डालने की जरूरत है|

मफ़ऊलातु के बारे में भी कुछ रोशनी डालनी चाहिए

सु-नयन, स-हृदय, स-विनय, स-कुशल वगैरह पढे / बोले भी दो टुकड़ों में ही जाते हैं| हिन्दी के शब्द हैं और शायद इन्हें फासला ए सुगरा से जोड़ कर देखा जाना चाहिए| आप लोगों की राय का भी इंतेजार रहेगा|

मामला और मुआमला
ओरिजिनली या तो एक सबब ए खफ़ीफ और एक वतद ए मजमुआ या फिर एक वतद ए मफ़रूफ़ और एक सबब ए खफ़ीफ
जिसे वक्त ने बदल कर बना दिया दो वतद ए मजमुआ

मसला और मसअला
ओरिजिनली दो सबब ए खफ़ीफ जिसे वक्त के साथ मिल गए एक सबब ए खफ़ीफ और एक वतद ए मजमुआ

मकान और मकां
मूल रुप में आप ही बताइये कि क्या कहें इसे, वैसे प्रचलित रूप में ये लगता है वतद ए मजमुआ

जीस्त-राह-खून-दोस्त वगैरह में 1 मात्रा वाले आखिरी अक्षर का, बहर की जरूरत के मुताबिक कहीं कहीं लोप किया जाना भी सर्व विदित है|
ऐसे और भी कुछ उदाहरण मिल जाएँगे|
मूल रूप में हैं ये वतद ए मजमुआ, पर बहर के मीटर की जरूरत के मुताबिक हो जाते हैं कहीं कहीं सबब ए खफ़ीफ|

2 मात्रा वाला सबब ए खफ़ीफ 'फा' के रूप में बहरों में आता है शायद, मैं भी एकजेक्टली ढूँढने की कोशिश करता हूँ बहर के नाम और उदाहरण के साथ|

लड्डू बनाने की विधि का रट्टा मरवा ही दिया दोस्त लोगों ने| जय हो| और देखो मैंने कैसे रट्टा मारा था:-


जब दो मिलें 'जुज' बोलिए 'अजजा' उसे
औ 'रूक्न' का प्लूरल सुना 'अरकान' है
जब दो मिलें 'मिसरे' तो बनता है 'शिअर'
'अशआर' 'शिअरों' का समूहिक गान है

जुज की कहानी है बड़ी दिलचस्प सी
'सबब' ओ 'वतद' ओ 'फासला' ये तीन हैं
फिर और भी इनके अगर टुकड़े करें
हर एक से जुड़ते दिखें 'दो' सीन हैं
[ये इंगलिश वाला सीन है उर्दू वाला नहीं]

सबबे खफीफ़ है 'ला' सकील फकत 'ल ल'
वतदेमजमुआ है 'ल ला', मफरूफ 'लाल'
फास्लाएसुगरा 'ल ल ला' कुबरा 'ल ल ल ला'
ये आख़िरी मिलता नहीं, क्या है कमाल

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

सॉरी जीस्त-खून वाले उदाहरण में वतद ए मजमुआ की जगह वतद ए मफ़रूफ़ पढ़ें प्लीज| गलती के लिए खेद है|

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

मफऊलातु सम्बंधित

वीनस ने पता दिया था और आदरणीय आर. पी. शर्मा 'महर्षि' जी के पास जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था| उन से कुछ पुस्तकें मिलीं, उन में से एक पुस्तक का नाम है "ग़ज़ल और ग़ज़ल की तकनीक"| इसे जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रिबूटर्स, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है|

इस पुस्तक के पेज नंबर १०० के हवाले से

मुस तफ़ इलुन मफऊलातु मुस तफ़ इलुन
२ २ १२ २२२१ २ २ १२
बहरेमुनसरह - सरला

आ, अजनबी आ, अपना बनाऊँ तुझे|
जीवन सफल हो जाए, जो पाऊँ तुझे||
[आदरणीय आर. पी. शर्मा 'महर्षि' द्वारा ही कहा गया है ये शे'र]


इसी पुस्तक के पेज नंबर १०१ के हवाले से

मफऊलातु मुस तफ़ इलुन मुस तफ़ इलुन
२२२१ २ २ १२ २ २ १२

बहरेमुक्तजब - विरहिणी

कजरारे तुम्हारे नैन जादू भरे|
देखे जो तुम्हें, बस तुम्हारा हो रहे||
[आदरणीय आर. पी. शर्मा 'महर्षि' द्वारा ही कहा गया है ये शे'र]

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

सबब ए खफीफ यानि 'फा' सम्‍बन्धित:-

अच्छे ख़ासे काम पे लगा दिया इस बेचारे ग़रीब को तुमने यारो|

एक और किताब कुछ महीनों पहले दी थी भाई देवमणि पाण्‍डेय जी ने| किताब का नाम है "ग़ज़ल एक अध्ययन"| दरअसल उस किताब की झेरोक्स के स्वरूप कुछ अंश हैं ये| और अधिक जानकारी नहीं है इस किताब के बारे में| तब सरसरी नज़र डालने पर ये 'फा' दिमाग़ में दर्ज हो के रह गया था| फिर कभी पढ़ने का मौका ही नहीं मिला, या यूँ कहिए कि न पढ़ने की बीमारी ने पढ़ने ही नहीं दिया| आर. पी. [राणा] और वीनस मेरी इस बीमारी के बारे में जानते हैं| अब जा के उस पन्ने को ढूँढा, और जो पाया; आप सभी के साथ साझा करता हूँ:-

पेज नंबर ९९

मुफ़तइलुन फाइलात मुफ़तइलुन फा [फ़िइ]
२११२ २१२१ २११२ २
आ क़ि मेरी जान को करार नहीं है|
ताकते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है||

बस इतना ही लिखा है उस पन्ने पे|

@ पंकज सुबीर भाई
लंबे अंतराल के बाद, पिछले साल से सार्वजनिक साहित्यिक जीवन में आने के बाद जिन दिलचस्प मित्रों से संपर्क हुआ, आप उन में से एक हैं| कई सारे लोग कहते हैं कि रचनाकार को [बेसिक्स को ध्यान में रखते हुए] अपना काम करते रहना चाहिए और समीक्षकों / समालोचकों को उन का अपना काम| रचनाकार अगर तकनीक के झंझट में उलझ गया, तो वो नहीं कह पाएगा, जिसे कहने की प्रेरणा उसे देती हैं माँ शारदे|

क्या ये सही है? आप सभी की राय की प्रतीक्षा रहेगी|

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र ने कहा…

मुझे तो लग रहा है कि हिंदी ग़ज़ल का व्याकरण उर्दू ग़ज़ल के आधार पर ना बनाकर सुबीर जी जैसे विद्वानों का एक पैनल बैठे और नए नियम निर्धारित करे देवनागरी के लिए तभी हम जैसे लोगों का दिमाग दही होने से बचेगा।

वीनस केसरी ने कहा…

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’ जी की बात का भरपूर समर्थन

Devi Nangrani ने कहा…

Ghazal ka vyakaran, vo bhi subah subah ek pyali chai ke saath, nahin! Sar chakra raha hai..
Par ye alekh ek jagah samet kar ek pustakni chahiye. bahut hi kargar mateial hai Ghazal vidha ke bare mein..

निर्मला कपिला ने कहा…

18 ke baad aaj net par aayee hoon aate hee mail check ki to sab se pahale gazal kaa safar dekha. fir se pichhla bhee paDHati hoon jaraa safar kee thakaan utaar loon. aapke samajhaane kaa dhang bahut acchaa hai jo kitaab se samajh nahee aataa thaa vo ab aa rahaa hai lekin fir bhee boodhaa dimaag kitanaa kaam karegaa? sabak yaad karati hoon dhanyaavaad us din kaa intajaar hai jab mujhe guroo ji kahane kaa saubhaagya milegaa. shaayad tab pooree tarah samajh jaaoongi . apakaa bahut bahut dhanyavaad. fir aati hoon.

तिलक राज कपूर ने कहा…

यहॉं तो सर पर कुछ उगने के आसार न देखकर बाल तक साथ छोड़ गये और ये नई नई जु़ल्‍फ़ों वाले नौजवान दिल जलाने का सामां छोड़कर चले जाते हैं टिप्‍पणियों में।
अब तो शब्‍दकोष के किसी छापाखाने से शब्‍दकोष की सॉफ़्टकॉपी प्राप्‍त की जाये तो पूरे शब्‍दकोष का ही एक बार में तीया पॉंचा कर दिया जाये जिसमे शब्‍दों के वज्‍़न आ जायें तो मामला हमेशा के लिय निपट जाये। कैसा रहेगा।

गौतम राजऋषि ने कहा…

ग़ज़ल के सफर का नया पन्ना खुला और हमने गोता लगा लिया| शायद "शुक्रिया" जैसे शब्द अपना अर्थ कैसे खो देते हैं गुरूदेव, वो आपकी निःस्वार्थ मेहनत और इस समर्पण से पता चलता है| अगली पोस्ट का इन्तजार रहेगा| वैसे भी ग़ज़ल के सफर पे नई पोस्ट आते ही पहले एक बार फिर से पुरानी पोस्टों को देख लेना लाजिमी हो जाता है|

दूसरी बात, इस सफर में शामिल तमाम सहयात्रियों से निवेदन है कि अपने सवालों के इस बेतरतीब, ताबरतोड और असहनीय बोझ से सफर के संचालक को हैरान, परेशान न करें | इसमें तो कोई शक नहीं है कि गुरूदेव ये सब कुछ अपनी ऊर्जा, अपना कीमती समय और अपनी मेहनत खोटी करके ये पाठ चला रहे हैं| उनको व्यक्तिगत रूप से इससे कुछ नहीं मिलने वाला है और न ही वो ऐसी आशा रखते हैं| तो हमासब लोग कम-से-कम इतना तो कर ही सकते हैं जिन सवालों के उत्तर इसी ब्लौग के या फिर गुरूजी के मुखी ब्लौग के पुराने पोस्टों मे ही दिये हुये हैं, उनको यहाँ पर फिर से उठाया न जाय| एक तो एक शख्स इतनी मेहनत करके ऐसी अनमोल जानकारी मुहैया करवाए और फिर हम समय निकाल कर हमासब के तमाम सवालों का जवाब भी दे....कम-से-कम मुझे ये उचित नहीं लग रहा है और गुरूजी से ये अपेकषा करना कि वो सारे सवालों का जवाब यहाँ एक-एक करके देते रहें, उनके प्रति सरासर नाइंसाफी है|

वीनस, जरा गौर से पढ़ो गुरूदेव के सारे पोस्ट, जवाब मिल जाएँगे| नवीन जी, मेरे ख्याल से दूसरी पुस्तकों से उद्धरण देकर यहाँ सवाल उठाना उचित न होगा| ऐसे तो हर कोई कुँवर बेचैन से लेकर रोहिताश्व अस्थाना तक के लिखे गए किताबों से सवाल उठाता रहेगा और गुरूजी उलजहे रह जाएँगे कि पाठ आगे चलाएं कि इन सवालों में फंस जाएँ......
धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल, कही ही ग़ज़ल जाती है अपने फारसी नियम कायदो को लेकर....उसमें देवनागरी या भोजपुरी या मराठी में ग़ज़ल लिखने के अलग से नियम नहीं तय किए जा सकते हैं|

आशा है, गुरूकुल का एक समर्पित छात्र होने की बदौलत कोई भी मेरे बातों को अन्यथा नहीं लेंगे| मेरा स्वार्थ बस इतना भर है कि गुरूजी हमें ज्ञान की गंगा बांटते भी रहें और उनका अपना कीमती समय जाया भी न हो जिससे वो हिन्दी साहित्य को ईस्ट इंडिया कंपनी और ये वो सहर तो नहीं जैसे और और धरोहर दे सके......

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

@गौतम
नहीं गौतम भैया, आप की बातों को अन्यथा नहीं लेंगे| अभिव्यक्ति का अर्थ ही यही है कि आप भी अपने मन के बातें कह सकें|

Ankit ने कहा…

प्रणाम गुरु जी,
आगे पढने से पहले पिछले पाठों/पोस्ट को दोहराना बहुत ज़रूरी है. पुरानी पोस्ट में जो भी बातें कही गयी है उन्हें पढने से काफी समस्याएँ दूर हो जाती हैं.
गुरु जी, किताब पढने का अलग ही मज़ा होता है, और उसका सभी को इंतज़ार रहेगा. आप ने बहुत सरलता से समझाया है, नयी कही बातों को एक बार पिछली कही बातों से जोड़ रहा हूँ. थोडा समझ में आ रहा है और ज्यादा समझने की कोशिश कर रहा हूँ.

वीनस केसरी ने कहा…

- एक हल्की सी फांस गड़ी थी अब वो निकल गई है और मेरे सारे डाउट क्लियर हो गए हैं

- आगे से ध्यान रखूंगा की जब बहुत आवश्यक हो तभी प्रश्न करू

- आपेक्षित है की जिसे उत्तर पता हो बता दे क्योकि हर स्कूल में यह तो होता ही है की जब मास्टर साहब पढ़ा कर चले जाते हैं तो बच्चे आपस में एक दूसरे से समझ लेते हैं

गुरु जी ने २ जुलाई की पोस्ट में खुद यह अनुमति दी है की


"एक निवेदन है यदि कमेंट में कोई प्रश्‍न आता है और आपको लगता है कि उसका उत्‍तर आपके पास है तो उसे कमेंट के माध्‍यम से दे दें । ताकि प्रश्‍न का समाधान हो जाये और मेरा भी काम आसान हो जाये ।"

- (दूसरी पुस्तकों से उद्धरण देकर यहाँ सवाल उठाना उचित न होगा)

इस बात से तो पूर्णतया सहमत हूँ

"अर्श" ने कहा…

गुरु देव प्रणाम,
सबसे पहले तो विलम्ब से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ ! सारी बातें नोट कर ली गई है ! मगर ये क्या कुछ लोग नाम ना कट जाने की डर से सिर्फ कहने भर की उपस्थिति दर्ज़ करा गए ! खैर ... टिप्पणियाँ पढने से मन में भटकाव की स्थिति हो रही है ... कई नए चहरे हैं इस बार की कक्षा में ... सभी का स्वागत है .. कुछ के नाम कट जाने का दुःख भी ! पूरी पोस्ट पढ़ चुका हूँ ... गौतम भाई की बातों का समर्थन करता हूँ टिप्पणियों में परेशानियों को उजागर करने के साथ उसे निपटा भी लिया जाये और कहीं और किसी पुस्तक की सहायता न लिए बगैर सिर्फ उसी पोस्ट की चर्चा की जाए उत्तर के साथ तो बात की सार्थकता कही जाएगी... और आपके परिश्रम को कुछ अच्छा लगेगा . अगली पोस्ट का तो बेशब्री से इंतज़ार कर रहा हूँ ... वीनस की कुछ बातें खुद समझ लेने वाली बात है ... जैसे दिल को हिंदी में दो लघु कहना और हलंत के साथ एक दीर्घ ये तो ठीक है मगर सुनयन के सवाल को ????? ये क्या है वीनस से पूछता हूँ की उच्चारण में सुनयन को कैसे उच्चारित किया जाता है सुन यन या सु न यन ... उसे खुद समझ आएगी ये बात ... तुम्हारे और सवालों के लिए बाद में आता हूँ ...

अर्श

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र ने कहा…

हाँ, सारी पोस्टें पढ़ने के बाद अब बात कुछ साफ हो रही है। इतना भी मुश्किल नहीं जितना पहले लगता था। अब अगली पोस्ट मेरे विचार में उन रुक्नों पर होनी चाहिए जो मूल रुक्न नहीं हैं।

dr.rajkumar patil ने कहा…

गुरूजी,मै ग़ज़ल का नया विद्यार्थी हूँ.अभी धीरे धीरे सब समझने की कोशिश कर रहा हूँ.आपकी ये महनत बेकार नहीं जायेगी.